Answer: छी बोला संध्या की उदास बेला, सूखे तरुपर पंछी बोला! आँखें खोलीं आज प्रथम, जग का वैभव लख भूला मन! सोचा उसने-”भर दूँ अपने मादक स्वर से निखिल गगन!“ दिन भर भटक-भटक कर नभ में मिली उसे जब शान्ति नहीं, बैठ गया तरु पर सुस्ताने, बैठ गया होकर उन्मन! देखा अपनी ही ज्वाला में झुलस गई तरु की काया; मिला न उसे स्नेह जीवन में, मिली न कहीं तनिक छाया। सोच रहा-”सुख जब न विश्व में, व्यर्थ मिला ऐसा चोला।“ संध्या की उदास बेला, सूखे तरु पर पंछी बोला। Reply
Answer:
छी बोला
संध्या की उदास बेला, सूखे तरुपर पंछी बोला!
आँखें खोलीं आज प्रथम, जग का वैभव लख भूला मन!
सोचा उसने-”भर दूँ अपने मादक स्वर से निखिल गगन!“
दिन भर भटक-भटक कर नभ में मिली उसे जब शान्ति नहीं,
बैठ गया तरु पर सुस्ताने, बैठ गया होकर उन्मन!
देखा अपनी ही ज्वाला में
झुलस गई तरु की काया;
मिला न उसे स्नेह जीवन में,
मिली न कहीं तनिक छाया।
सोच रहा-”सुख जब न विश्व में, व्यर्थ मिला ऐसा चोला।“
संध्या की उदास बेला, सूखे तरु पर पंछी बोला।